10. सूरह युनुस Surah Yunus


यह सूरह मक्की है, इस में 109 आयतें हैं।

अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील तथा दयावान् है।

﴾ 1 ﴿ अलिफ, लाम, रा। ये तत्वज्ञता से परिपूर्ण पुस्तक (क़ुर्आन) की आयतें हैं।

﴾ 2 ﴿ क्या मानव के लिए आश्चर्य की बात है कि हमने, उन्हीं में से एक पुरुष पर, प्रकाशना भेजी है कि आप, मानवगण को सावधान कर दें और जो ईमान लायें, उन्हें शुभ सूचना सुना दें कि उन्हीं के लिए उनके पालनहार के पास सत्य सम्मान[1] है? तो काफ़िरों ने कह दिया कि ये खुला जादूगर है।
1. सत्य सम्मान से अभिप्रेत स्वर्ग है। अर्थात उन के सत्तकर्मों का फल उन्हें अल्लाह की ओर से मिलेगा।

﴾ 3 ﴿ वास्तव में, तुम्हारा पालनहार वही अल्लाह है, जिसने आकाशों तथा धरती को छः दिनों में उत्पन्न किया, फिर अर्श (राज सिंहासन) पर स्थिर हो गया। वही विश्व की व्यवस्था कर रहा है। कोई उसके पास अनुशंसा (सिफ़ारिश) नहीं कर सकता, परन्तु उसकी अनुमति के पश्चात्। वही अल्लाह तुम्हारा पालनहार है, अतः उसी की ईबादत (वंदना)[1] करो। क्या तुम शिक्षा ग्रहण नहीं करते?
1. भावार्थ यह है कि जब विश्व की व्यवस्था वही अकेला कर रहा है, तो पूज्य भी वही अकेला होना चाहिये।

﴾ 4 ﴿ उसी की ओर तुमसब को लौटना है। ये अल्लाह का सत्य वचन है। वही उत्पत्ति का आरंभ करता है। फिर वही पुनः उत्पन्न करेगा, ताकि उन्हें न्याय के साथ प्रतिफल प्रदान[1] करे। जो ईमान लाये और सदाचार किये और जो काफ़िर हो गये, उनके लिए खोलता पेय तथा दुःखदायी यातना है, उस अविश्वास के बदले, जो कर रहे थे।
1. भावार्थ यह है कि यह दूसरा परलोक का जीवन इस लिये आवश्यक है कि कर्मों के फल का नियम यह चाहता है कि जब एक जीवन कर्म के लिये है तो दूसरा कर्मों के प्रतिफल के लिये होना चाहिये।

﴾ 5 ﴿ उसीने सूर्य को ज्योति तथा चाँद को प्रकाश बनाया है और उस (चाँद) के गंतव्य स्थान निर्धारित कर दिये, ताकि तुम वर्षों की गिनती तथा ह़िसाब का ज्ञान कर लो। इनकी उत्पत्ति अल्लाह ने नहीं की है, परन्तु सत्य के साथ। वह उन लोगों के लिए निशानियों (लक्षणों) का वर्णन कर रहा है, जो ज्ञान रखते हों।

﴾ 6 ﴿ निःसंदेह रात्रि तथा दिवस के एक-दूसरे के पीछे आने में और जो कुछ अल्लह ने आकाशों तथा धरती में उत्पन्न किया है, उन लोगों के लिए निशानियाँ हैं, जो अल्लाह से डरते हों।

﴾ 7 ﴿ वास्तव में, जो लोग (प्रलय के दिन) हमसे मिलने की आशा नहीं रखते और सांसारिक जीवन से प्रसन्न हैं तथा उसीसे संतुष्ट हैं तथा जो हमारी निशानियों से असावधान हैं।

﴾ 8 ﴿ उन्हीं का आवास नरक है, उसके कारण, जो वे करते रहे।

﴾ 9 ﴿ वास्तव में, जो ईमान लाये और सुकर्म किये, उनका पालनहार, उनके ईमान के कारण, उन्हें (स्वर्ग की) राह दर्शा देगा, जिनमें नहरें प्रवाहित होंगी। वे सुख के स्वर्गों में होंगे।

﴾ 10 ﴿ उनकी पुकार उस (स्वर्ग) में ये होगीः “हे अल्लाह! तू पवित्र है।” और एक-दूसरे को उसमें उनका आशीर्वाद ये होगाः “तुमपर शान्ति हो।” और उनकी प्रार्थना का अंत ये होगाः “सब प्रशंसा, अल्लाह के लिए है, जो सम्पूर्ण विश्व का पालनहार है।”

﴾ 11 ﴿ और यदि अल्लाह, लोगों को तुरन्त बुराई का (बदला) दे देता, जैसे वे तुरन्त (सांसारिक) भलाई चाहते हैं, तो उनका समय कभी पूरा हो चुका होता! अतः जो (मरने के पश्चात्) हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, हम उन्हें, उनके कुकर्मों में बहकते हुए[1] छोड़ देंगे।
1. आयत का अर्थ यह है कि अल्लाह के दुष्कर्मों का दण्ड देने का नियम यह नहीं है कि तुरन्त संसार ही में उस का कुफल दे दिया जाये। परन्तु दुष्कर्मी का यहाँ अवसर दिया जाता है, अन्यथा उन का समय कभी का पूरा हो चुका होता।

﴾ 12 ﴿ और जब मानव को कोई दुःख पहुँचता है, तो हमें लेटे, बैठे या खड़े होकर पुकारता है। फिर जब हम उसका दुःख दूर कर देते हैं, तो ऐसे चल देता है, जैसे कभी हमें किसी दुःख के समय पुकारा ही न हो! इसी प्रकार, उल्लंघनकारियों के लिए उनके करतूत शोभित बना दिये गये हैं।

﴾ 13 ﴿ और तुमसे पहले, हम कई जातियों को ध्वस्त कर चुके हैं; जब उन्होंने अत्याचार किये और उनके पास उनके रसूल खुले तर्क (प्रमाण) लाये, परन्तु वे ऐसे नहीं थे कि ईमान लाते, इसी प्रकार, हम अपराधियों को बदला देते हैं।

﴾ 14 ﴿ फिर हमने धरती में उनके पश्चात्, तुम्हें उनका स्थान दिया, ताकि हम देखें कि तुम्हारे कर्म कैसे होते हैं?

﴾ 15 ﴿ और (हे नबी!) जब हमारी खुली आयतें उन्हें सुनाई जाती हैं, तो जो हमसे मिलने की आशा नहीं रखते, वे कहते हैं कि इसके सिवा कोई दूसरा क़ुर्आन लाओ या इसमें परिवर्तन कर दो। उनसे कह दो कि मेरे बस में ये नहीं है कि अपनी ओर से इसमें परिवर्तन कर दूँ। मैं तो बस उस प्रकाशना का अनुयायी हूँ, जो मेरी ओर की जाती है। मैं यदि अपने पालनहार की अवज्ञा करूँ, तो मैं एक घोर दिन की यातना से डरता हूँ।

﴾ 16 ﴿ आप कह दें: यदि अल्लाह चाहता, तो मैं क़ुर्आन तुम्हें सुनाता ही नहीं और न वह तुम्हें इससे सूचित करता। फिर मैं इससे पहले तुम्हारे बीच एक आयु व्यतीत कर चुका हूँ। तो क्या तुम समझ बूझ नहीं रखते हो[1]?
1. आयत का भावार्थ यह है कि यदि तुम एक इसी बात पर विचार करो कि मैं तुम्हारे लिये कोई अपरिचित अज्ञात नहीं हूँ। मैं तुम्ही में से हूँ। यहीं मक्का में पैदा हुआ, और चालीस वर्ष की आयु तुम्हारे बीच व्यतीत की। मेरा पूरा जीवन चरित्र तुम्हारे सामने है, इस अवधि में तुमने सत्य और अमानत के विरुध्द मुझ में कोई बात नहीं देखी तो अब चालीस वर्ष के पश्चात् यह कैसे हो सकता है कि अल्लाह पर यह मिथ्या आरोप लगा दूँ कि उस ने यह क़ुर्आन मुझ पर उतारा है? मेरा पवित्र जीवन स्वयं इस बात का प्रमाण है कि यह क़ुर्आन अल्लाह की वाणी है। और मैं उस का नबी हूँ। और उसी की अनुमति से यह क़ुर्आन तुम्हें सुना रहा हूँ।

﴾ 17 ﴿ फिर उससे अधिक अत्याचारी कौन होगा, जो अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगाये अथवा उसकी आयतों को मिथ्या कहे? वास्तव में, ऐसे अपराधी सफल नहीं होते।

﴾ 18 ﴿ और वे अल्लाह के सिवा, उनकी इबादत (वंदना) करते हैं, जो न तो उन्हें कोई हानि पहुँचा सकते हैं और न कोई लाभ और कहते हैं ये अल्लाह के यहाँ, हमारे अभिस्तावक (सिफारिशी) हैं, आप कहियेः क्या तुम अल्लाह को ऐसी बात की सूचना दे रहे हो, जिसके होने को न वह आकाशों में जानता है और न धरती में? वह पवित्र और उच्च है, उस शिर्क (मिश्रणवाद) से, जो वे कर रहे हैं।

﴾ 19 ﴿ लोग एक ही धर्म (इस्लाम) पर थे, फिर उन्होंने विभेद[1] किया और यदि आपके पालनहार की ओर से, पहले ही से एक बात निश्चित न[2] होती, तो उनके बीच उसका (संसार ही में) निर्णय कर दिया जाता, जिसमें वे विभेद कर रहे हैं।
1. अतः कुछ शिर्क करने और देवी देवताओं को पूजने लगे। (इब्ने कसीर) 2. कि संसार में लोगों को कर्म करने का अवसर दिया जाये।

﴾ 20 ﴿ और वे ये भी कहते हैं कि आपपर कोई आयत (चमत्कार) क्यों नहीं उतारा गया[1]? आप कह दें कि परोक्ष की बातें तो अल्लाह के अधिकार में हैं। अतः, तुम प्रतीक्षा करो, मैंभी तुम्हारे साथ प्रतीक्षा कर रहा हूँ[2]।
1. जैसे कि सफ़ा पर्वत सोने का हो जाता। अथवा मक्का के पर्वतों के स्थान पर अद्यान हो जाते। (इब्ने कसीर) 2. अर्थात अल्लाह के आदेश की।

﴾ 21 ﴿ और जब हम, लोगों को दुःख पहुँचने के पश्चात्, दया (का स्वाद) चखाते हैं, तो तुरन्त हमारी आयतों (निशानियों) के बारे में षड्यंत्र रचने लगते हैं। आप कह दें कि अल्लाह का उपाय अधिक तीव्र है। हमारे फ़रिश्ते तुम्हारी चालें लिख रहे हैं।

﴾ 22 ﴿ वही है, जो जल तथा थल में तुम्हें फिराता है। फिर जब तुम नौकाओं में होते हो और (नौकाएँ) उन (सवारों) को लेकर अनुकूल वायु के कारण चलती हैं और वे उससे प्रसन्न होते हैं, तो अकस्मात् प्रचन्ड वायु का झोंका आ जाता है और प्रत्येक स्थान से उन्हें लहरें मारने लगती हैं और समझते हैं कि उन्हें घेर लिया गया है, तो अल्लाह से उसके लिए धर्म को विशुध्द करके[1] प्रार्थना करते हैं कि यदि तूने हमें बचा लिया, तो हम अवश्य तेरे कृतज्ञ बनकर रहेंगे!
1. और सब देवी देवताओं को भूल जाते हैं।

﴾ 23 ﴿ फिर जब उन्हें बचा लेता है, तो अकस्मात् धरती में अवैध विद्रोह करने लगते हैं। हे लोगो! तुम्हारा विद्रोह, तुम्हारे ही विरुध्द पड़ रहा है। ये सांसारिक जीवन के कुछ लाभ[1] हैं। फिर तुम्हें हमारी ओर फिरकर आना है। तब हम, तुम्हें बता देंगे कि तुम क्या कर रहे थे?
1. भावार्थ यह है कि जब तक संसारिक जीवन के संसाधन का कोई सहारा होता है तो लोग अल्लाह को भूले रहते हैं। और जब यह सहारा नहीं होता तो उन का अन्तरज्ञान उभरता है। और वह अल्लाह को पुकारने लगते हैं। और जब दुःख दूर हो जाता है तो फिर वही दशा हो जाती है। इस्लाम यह शिक्षा देता है कि सदा सुख दुःख में उसे याद करते रहो।

﴾ 24 ﴿ सांसारिक जीवन तो ऐसा ही है, जैसे हमने आकाश से जल बरसाया, जिससे धरती की उपज घनी हो गयी, जिसमें से लोग और पशु खाते हैं। फिर जब, वह समय आया कि धरती ने अपनी शोभा पूरी कर ली और सुसज्जित हो गयी और उसके स्वामी ने समझा कि वह, उससे लाभांवित होने पर सामर्थ्य रखते हैं, तो अकस्मात् रात या दिन में हमारा आदेश आ गया और हमने उसे, इस प्रकार काटकर रख दिया, जैसे कि कल वहाँ थी[1] ही नहीं। इसी प्रकार, हम आयतों का वर्णन खोल-खोल कर करते हैं, ताकि लोग मनन-चिंतन करें।
1. अर्थात संसारिक आनंद और सुख वर्षा की उपज के समान सामयिक और अस्थायी है।

﴾ 25 ﴿ और अल्लाह तुम्हें शान्ति के घर (स्वर्ग) की ओर बुला रहा है और जिसे चाहता है, सीधी डगर दर्शा देता है।

﴾ 26 ﴿ जिन लोगों ने भलाई की, उनके लिए भलाई ही होगी और उससे भी अधिक[1]।
1. अधिकांश भाष्यकारों ने “अधिक” का भावार्थ “आख़िरत में अल्लाह का दर्शन” और “भलाई” का “स्वर्ग” किया है। (इब्ने कसीर)

﴾ 27 ﴿ और जिन लोगों ने बुराईयाँ कीं, तो बुराई का बदला उसी जैसा होगा; उनपर अपमान छाया होगा और उनके लिए अल्लाह से बचाने वाला कोई न होगा। उनके मुखों पर ऐसे कालिमा छायी होगी, जैसे अंधेरी रात के काले पर्दे, उनपर पड़े हुए हों। वही नारकी होंगे और वही उसमें सदावासी होंगे।

﴾ 28 ﴿ जिस दिन, हम उनसब को एकत्र करेंगे, फिर उनसे कहेंगे, जिन्होंने साझी बनाया है कि अपने स्थान पर रुके रहो और तुम्हारे (बनाये हुए) साझी भी। फिर हम उनके बीच अलगाव कर देंगे और उनके साझी कहेंगेः तुमतो हमारी वंदना ही नहीं करते थे।

﴾ 29 ﴿ हमारे और तुम्हारे बीच, अल्लाह का साक्ष्य बस है कि तुम्हारी वंदना से, हम असूचित थे।

﴾ 30 ﴿ वहीं, प्रत्येक व्यक्ति उसे परख लेगा, जो पहले किया है और वे (निर्णय के लिए) अपने सत्य स्वामी की ओर फेर दिये जायेंगे और जो मिथ्या बातें बना रहे थे, उनसे खो जायेंगे।

﴾ 31 ﴿ (हे नबी!) उनसे पूछें कि तुम्हें कौन आकाश तथा धरती[1] से जीविका प्रदान करता है? सुनने तथा देखने की शक्तियाँ किसके अधिकार में हैं? कौन निर्जीव से जीव को तथा जीव से निर्जीव को निकालता है? वह कौन है, जो विश्व की व्यवस्था कर रहा है? वे कह देंगे कि अल्लाह[2]! फिर कहो कि क्या तुम (सत्य के विरोध से) डरते नहीं हो?
1. आकाश की वर्षा तथा धरती की उपज से। 2. जब यह स्वीकार करते हो कि विश्व की व्यवस्था अल्लाह ही कर रहा है तो पूजा अराधना भी उसी की होनी चाहिये।

﴾ 32 ﴿ तो वही अल्लाह तुम्हारा सत्य पालनहार है, फिर सत्य के पश्चात् कुपथ (असत्य) के सिवा क्या रह गया? फिर तुम किधर फिराये जा रहे हो?

﴾ 33 ﴿ इस प्रकार, आपके पालनहार की बातें अवज्ञाकारियों पर सत्य सिध्द हो गयीं कि वे ईमान नहीं लायेंगे।

﴾ 34 ﴿ आप उनसे कहियेः क्या तुम्हारे साझियों में कोई है, जो उत्पत्ति का आरंभ करता फिर उसे दुहराता है। फिर तुम कहाँ बहके जा रहे हो?

﴾ 35 ﴿ आप कहियेः क्या तुम्हारे साझियों में कोई संमार्ग दर्शाता है? (यदि नहीं,)तो क्या जो संमार्ग दर्शाता हो, वह अधिक योग्य है कि उसका अनुपालन किया जाये अथवा वह, जो स्वयं संमार्ग पर न हो, परन्तु ये कि उसे संमार्ग दर्शा दिया जाये? तो तुम्हें क्या हो गया है? तुम कैसा निर्णय कर रहे हो?

﴾ 36 ﴿ और उन (मिश्रणवादियों) में अधिकांश, अनुमान का अनुसरण करते हैं और सत्य को जानने में, अनुमान कुछ काम नहीं दे सकता। वास्तव में, अल्लाह जोकुछ वे कर रहे हैं, भली-भाँति जानता है।

﴾ 37 ﴿ और ये क़ुर्आन, ऐसा नहीं है कि अल्लाह के सिवा अपने मन से बना लिया जाये, परन्तु उन (पुस्तकों) की पुष्टि है, जो इससे पहले उतरी हैं और ये पुस्तक (क़ुर्आन) विवरण[1] है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये सम्पूर्ण विश्व के पालनहार की ओर से है।
1. अर्थात अल्लाह की पुस्तकों में जो शिक्षा दी गयी है उस का क़ुर्आन में सविस्तार वर्णन है।

﴾ 38 ﴿ क्या वे कहते हैं कि इस (क़ुर्आन) को उस (नबी) ने स्वयं बना लिया है? आप कह दें: इसीके समान एक सूरह ले आओ और अल्लाह के सिवा, जिसे (अपनी सहायता के लिए) बुला सकते हो बुला लो, यदि तुम सत्यवादि हो।

﴾ 39 ﴿ बल्कि उन्होंने उस (क़ुर्आन) को झुठला दिया, जो उनके ज्ञान के घेरे में नहीं[1] आया और न उसका परिणाम उनके सामने आया। इसी प्रकार, उन्होंने भी झुठलाया था, जो इनसे पहले थे। तो देखो कि अत्याचारियों का क्या परिणाम हुआ?
1. अर्थात बिना सोचे समझे इसे झुठलाने के लिये तैयार हो गये।

﴾ 40 ﴿ और उनमें से कुछ ऐसे हैं, जो इस (क़ुर्आन) पर ईमान लाते हैं और कुछ ईमान नहीं लाते और आपका पालनहार उपद्रवकारियों को अधिक जानता है।

﴾ 41 ﴿ और यदि वे आपको झुठलायें, तो आप कह दें: मेरे लिए मेरा कर्म है और तुम्हारे लिए तुम्हारा कर्म। तुम उससे निर्दोष हो, जो मैं करता हूँ तथा मैं उससे निर्दोष हूँ, जो तुम करते हो।

﴾ 42 ﴿ इनमें से कुछ लोग, आपकी ओर कान लगाते हैं। तो क्या आप बहरों[1] को सुना सकते हैं, यद्यपि वे कुछभी न समझ सकते हों?
1. अर्थात जो दिल और अन्तरज्ञान के बहरे हैं।

﴾ 43 ﴿ और उनमें से कुछ ऐसे हैं, जो आपकी ओर तकते हैं, तो क्या आप अंधे को राह दिखा देंगे, यद्यपि उन्हें कुछ सूझता न हो?

﴾ 44 ﴿ वास्तव में, अल्लाह, लोगों पर अत्याचार नहीं करता, परन्तु लोग स्वयं अपने ऊपर अत्याचार करते हैं[1]।
1. भावार्थ यह है कि लोग अल्लाह की दी हुयी समझ बूझ से काम न ले कर सत्य और वास्तविक्ता के ज्ञान की अर्हता खो देते हैं।

﴾ 45 ﴿ और जिस दिन अल्लाह उन्हें एकत्र करेगा, तो उन्हें लगेगा कि वे (संसार में) दिन के केवल कुछ क्षण रहे। वे आपस में परिचित होंगे। वास्तव में, वे क्षतिग्रस्त हो गये, जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठला दिया और वे सीधी डगर पाने वाले न हूए।

﴾ 46 ﴿ और यदि, हम आपको उस (यातना) में से कुछ दिखा दें, जिसका वचन उन्हें दे रहे हैं अथवा (उससे पहले) आपका समय पूरा कर दें, तोभी उन्हें हमारे पास ही फिरकर आना है। फिर अल्लाह उसपर साक्षी है, जो वे कर रहे हैं।

﴾ 47 ﴿ और प्रत्येक समुदाय के लिए एक रसूल है। फिर जब उनका रसूल आ गया, तो (हमारा नियम ये है कि) उनके बीच न्याय के साथ निर्णय कर दिया जाता है और उनपर अत्याचार नहीं किया जाता।

﴾ 48 ﴿ और वे कहते हैं कि हमपर यातना का वचन कब पूरा होगा, यदि तुम सत्यवादि हो?

﴾ 49 ﴿ आप कह दें कि मैं स्वयं अपने लाभ तथा हानि का अधिकार नहीं रखता। वही होता है, जो अल्लाह चाहता है। प्रत्येक समुदाय का एक समय निर्धारित है तथा जब उनका समय आ जायेगा, तो न एक क्षण पीछे रह सकते हैं और न आगे बढ़ सकते हैं।

﴾ 50 ﴿ (हे नबी!) कह दो कि तुम बताओ यदि अल्लाह की यातना तुमपर रात अथवा दिन में आ जाये, ( तो तुम क्या कर सकते हो?) ऐसी क्या बात है कि अपराधि उसके लिए जल्दी मचा रहे हैं?

﴾ 51 ﴿ क्या जब वह आ जायेगी, उस समय तुम उसे मानोगे? अब, जबकि उसके शीघ्र आने की माँग कर रहे थे।

﴾ 52 ﴿ फिर अत्याचारियों से कहा जायेगा कि सदा की यातना चखो। तुम्हें उसी का प्रतिकार (बदला) दिया जा रहा है, जो तुम (संसार में) कमा रहे थे।

﴾ 53 ﴿ और वे आपसे पूछते हैं कि क्या ये बात वास्तव में सत्य है? आप कह दें कि मेरे पालनहार की शपथ! ये वास्तव में सत्य है और तुम अल्लाह को विवश नहीं कर सकते।

﴾ 54 ﴿ और यदि प्रत्येक व्यक्ति के पास, जिसने अत्याचार किया है, जो कुछ धरती में है, सब आ जाये, तो वे अवश्य उसे अर्थदण्ड के रूप में देने को तैयार हो जायेगा और जब वे उस यातना को देखेंगे, तो दिल ही दिल में पछतायेंगे और उनके बीच, न्याय के साथ निर्णय कर दिया जायेगा और उनपर अत्याचार नहीं किया जायेगा।

﴾ 55 ﴿ सुनो! अल्लाह ही का है, वो जो कुछ आकाशों तथा धरती में है। सुनो! उसका वचन सत्य है। परन्तु अधिक्तर लोग इसे नहीं जानते।

﴾ 56 ﴿ वही जीवन देता तथा वही मारता है और उसी की ओर तुमसब लौटाये जाओगे[1]।
1. प्रलय के दिन अपने कर्मों का फल भोगने के लिये।

﴾ 57 ﴿ हे लोगो[1]! तम्हारे पास, तुम्हारे पालनहार की ओर से, शिक्षा (क़ुर्आन) आ गयी है, जो अन्तरात्मा के सब रोगों का उपचार (स्वास्थ्य कर), मार्गदर्शन और दया है, उनके लिए, जो विश्वास रखते हों।
1. इस में क़ुर्आन के चार गुणों का वर्णन किया गया हैः 1. यह सत्य शिक्षा है। 2. द्विधा के सभी रोगों के लिये स्वास्थ्यकर है। 3. संमार्ग दर्शाता है। 4. ईमान वालों के लिये दया का उपदेश है।

﴾ 58 ﴿ आप कह दें कि ये (क़ुर्आन) अल्लाह की अनुग्रह और उसकी दया है। अतः लोगों को इससे प्रसन्न हो जाना चाहिए और ये उस (धन-धान्य) से उत्तम है, जो लोग एकत्र रहे हैं।

﴾ 59 ﴿ (हे नबी!) उनसे कहोः क्या तुमने इसपर विचार किया है कि अल्लाह ने तुम्हारे लिए, जो जीविका उतारी है, तुमने उसमें से कुछ को ह़राम (अवैध) बना दिया है और कुछ को ह़लाल (वैध) , तो कहो कि क्या अल्लाह ने तुम्हें इसकी अनुमति दी है? अथवा तुम अल्लाह पर आरोप लगा रहे[1] हो?
1. आयत का भावार्थ यह है कि किसी चीज़ को वर्जित करने का अधिकार केवल अल्लाह को है। अपने विचार से किसी चीज़ को अवैध करना अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगाना है।

﴾ 60 ﴿ और जो लोग, अल्लाह पर मिथ्या आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने प्रलय के दिन को क्या समझ रखा है? वास्तव में, अल्लाह लोगों के लिए दयाशील[1] है। परन्तु उनमें अधिक्तर कृतज्ञ नहीं होते।
1. इसी लिये प्रलय तक का अवसर दिया है।

﴾ 61 ﴿ (हे नबी!) आप जिस दशा में हों और क़ुर्आन में से, जो कुछ भी सुनाते हों तथा (हे मनुष्यो!) तुम लोग भी कोई कर्म नहीं करते हो, परन्तु हम तुम्हें देखते रहते हैं, जब तुम उसे करते हो और (हे नबी!) आपके पालनहार से धरती में कण-भर भी कोई चीज़ छुपी नहीं रहती और न आकाश में, न इससे कोई छोटी न बड़ी, परन्तु वह खुली पुस्तक में अंकित है।

﴾ 62 ﴿ सुनो! जो अल्लाह के मित्र हैं, न उन्हें कोई भय होगा और न वे उदासीन होंगे।

﴾ 63 ﴿ जो ईमान लाये तथा अल्लाह से डरते रहे।

﴾ 64 ﴿ उन्हीं के लिए सांसारिक जीवन में, शुभ सूचना है तथा प्रलोक में भी। अल्लाह की बातों में कोई परिवर्तन नहीं, यही बड़ी सफलता है।

﴾ 65 ﴿ तथा (हे नबी!) आपको उन (काफ़िरों) की बात उदासीन न करे। वास्तव में, सभी प्रभुत्व अल्लाह ही के लिए है और वह सब कुछ सुनने जानने-वाला है।

﴾ 66 ﴿ सुनो! वास्तव में, अल्लाह ही के अधिकार में है, जो आकाशों तथा धरती में है और जो अल्लाह के सिवा दूसरे साझियों को पुकारते हैं, वे केवल अनुमान के पीछे लगे हुए हैं और वे केवल आँकलन कर रहे हैं।

﴾ 67 ﴿ वही है, जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई है, ताकि उसमें सुख पाओ और दिन बनाया ताकि उसके प्रकाश में देखो। निःसंदेह इसमें (अल्लाह के व्यवस्थापक होने की) उनके लिए बड़ी निशानियाँ हैं, जो (सत्य को) सुनते हों।

﴾ 68 ﴿ और उन्होंने कह दिया कि अल्लाह ने कोई पुत्र बना लिया है। वह पवित्र है। वह निस्पृह है। वही स्वामी है उसका, जो अकाशों में तथा धरती में है। क्या तुम्हारे पास इसका कोई प्रमाण है? क्या तुम अल्लाह पर ऐसी बात कह रहे हो, जिसका तुम ज्ञान नहीं रखते?

﴾ 69 ﴿ (हे नबी!) आप कह दें: जो अल्लाह पर मिथ्या बातें बनाते हैं, वह सफल नहीं होंगे।

﴾ 70 ﴿ उनके लिए संसार ही का कुछ आनंद है, फिर हमारी ओर ही आना है। फिर हम उन्हें, उनके कुफ़्र (अविश्वास) करते रहने के कारण घोर यातना चखायेंगे।

﴾ 71 ﴿ आप उन्हें नूह़ की कथा सुनायें, जब उसने अपनी जाति से कहाः हे मेरी जाति! यदि मेरा तुम्हारे बीच रहना और तुम्हें अल्लाह की आयतों (निशानियों) द्वारा मेरा शिक्षा देना, तुमपर भारी हो, तो अल्लाह हीपर मैंने भरोसा किया है। तुम मेरे विरुध्द जो करना चाहो, उसे निश्चित कर लो और अपने साझियों (देवी-देवताओं) को भी बुला लो। फिर तुम्हारी योजना तुमपर तनिक भी छुपी न रह जाये, फिर जो करना हो, उसे कर जाओ और मुझे कोई अवसर न दो।

﴾ 72 ﴿ फिर यदि तुमने मुख फेरा, तो मैंने तुमसे किसी पारिश्रमिक की माँग नहीं की है। मेरा पारिश्रमिक तो अल्लाह के सिवा किसी के पास नहीं है और मुझे आदेश दिया गया है कि आज्ञाकारियों में रहूँ।

﴾ 73 ﴿ फिर भी उन्होंने उसे झुठला दिया, तो हमने उसे और जो नाव में उसके साथ (सवार) थे, बचा लिया और उन्हीं को उनका उत्तराधिकारी बना दिया और उन्हें जलमगन कर दिया, जिन्होंने हमारी निशानियों को झुठला दिया। अतः देखलो कि उनका परिणाम किया हुआ, जो सचेत किये गये थे।

﴾ 74 ﴿ फिर हमने उस (नूह़) के पश्चात बहुत-से रसूलों को, उनकी जाति के पास भेजा, वे उनके पास खुली निशानियाँ (तर्क) लाये, तो वे ऐसे न थे कि जिसे पहले झुठला दिया था, उसपर ईमान लाते, इसी प्रकार, हम उल्लंघनकारियों के दिलों पर मुहर[1] लगा देते हैं।
1. अर्थात् जो बिना सोचे समझे सत्य को नकार देते हैं उन के सत्य को स्वीकार करने की स्वभाविक योग्यता खो जाती है।

﴾ 75 ﴿ फिर हमने उनके पश्चात मूसा और हारून को फ़िरऔन और उसके प्रमुखों के पास भेजा। तो उन्होंने अभिमान किया और वे थे ही अपराधीगण।

﴾ 76 ﴿ फिर जब उनके पास हमारी ओर से सत्य आ गया, तो उन्होंने कह दिया कि वास्तव में ये तो खुला जादू है।

﴾ 77 ﴿ मूसा ने कहाः क्या तुम सत्य को, जब तुम्हारे पास आ गया, तो जादू कहने लगे? क्या ये जादू है? जबकि जादूगर (तांत्रिक) सफल नहीं होते!

﴾ 78 ﴿ उन्होंने कहाः क्या तुम इसलिए हमारे पास आये हो, ताकि हमें उस प्रथा से फेर दो, जिसपर हमने अपने पूर्वजों को पाया है और देश (मिस्र)में तुम दोनों की महिमा स्थापित हो जाये? हम, तुम दोनों का विश्वास करने वाले नहीं हैं।

﴾ 79 ﴿ और फ़िरऔन ने कहाः (देश में) जितने दक्ष जादूगर हैं, उन्हें मेरे पास लाओ।

﴾ 80 ﴿ फिर जब जादूगर आ गये, तो मूसा ने कहाः जो कुछ तुम्हें फेंकना है, उसे फेंक दो।

﴾ 81 ﴿ और जब उन्होंने फेंक दिया, तो मूसा नो कहाः तुम जो कुछ लाये हो, वह जादू है। निश्चय अल्लाह उसे अभिव्यर्थ कर देगा। वास्तव में, अल्लाह उपद्रवकारियों के कर्म को नहीं सुधारता।

﴾ 82 ﴿ और अल्लाह सत्य को, अपने आदेशों के अनुसार, सत्य कर दिखायेगा। यद्यपि अपराधियों को बुरा लगे।

﴾ 83 ﴿ तो मूसा पर, उसकी जाति के कुछ नवयुवकों के सिवा, कोई ईमान नहीं लाया, फ़िरऔन और अपने प्रमुखों के भय से कि उन्हें किसी यातना में न डाल दें। वास्तव में, फ़िर्औन का धरती में बड़ा प्रभुत्व था और वह वस्तुतः उल्लंघनकारियों में था।

﴾ 84 ﴿ और मूसा ने (अपनी जाति, बनी इस्राईल से) कहाः हे मेरी जाति! जब तुम अल्लाह पर ईमान लाये हो, तो उसीपर निर्भर रहो, यदि तुम आज्ञाकारी हो।

﴾ 85 ﴿ तो उन्होंने कहाः हमने अल्लाह ही पर भरोसा किया है। हे हमारे पालनहार! हमें अत्याचारियों के लिए परीक्षा का साधन न बना।

﴾ 86 ﴿ और अपनी दया से हमें काफ़िरों से बचा ले।

﴾ 87 ﴿ और हमने मूसा तथा उसके भाई (हारून) की ओर प्रकाशना भेजी कि अपनी जाति के लिए मिस्र में कुछ घर बनाओ और अपने घरों को क़िब्ला[1] बना लो तथा नमाज़ की स्थापना करो और ईमान वालों को शुभ सूचना दो।
1. “क़िब्ला” उस दिशा को कहा जाता है जिस की ओर मुख कर के नमाज़ पढ़ी जाती है।

﴾ 88 ﴿ और मूसा ने प्रार्थना कीः हे मेरे पारलनहार! तूने फ़िरऔन और उसके प्रमुखों को सांसारिक जीवन में शोभा तथा धन-धान्य प्रदान किया है। तो मेरे पालनहार! क्या इसलिए कि वे तेरी राह से विचलित करते रहें? हे मेरे पालनहार! उनके धनों को निरस्त कर दे और उनके दिल कड़े कर दे कि वे ईमान न लायें, जब तक दुःखदायी यातना न देख लें।

﴾ 89 ﴿ अल्लाह ने कहाः तुम दोनों की प्रार्थना स्वीकार कर ली गयी। तो तुम दोनों अडिग रहो और उनकी राह का अनुसरण न करो, जो ज्ञान नहीं रखते।

﴾ 90 ﴿ और हमने बनी इस्राईल को सागर पार करा दिया, तो फ़िरऔन और उसकी सेना ने उनका पीछा किया, अत्याचार तथा शत्रुता के ध्येय से। यहाँ तक कि जब वह जलमगन होने लगा, तो बोलाः मैं ईमान ले आया और मान लिया कि उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है, जिसपर बनी इस्राईल ईमान लाये हैं और मैं आज्ञाकारियों में हूँ।

﴾ 91 ﴿ (अल्लाह ने कहाः) अब? जबकि इससे पूर्व अवज्ञा करता रहा और उपद्रवियों में से था?

﴾ 92 ﴿ आज हम तेरे शव को बचा लेंगे, ताकि तू उनके लिए, जो तेरे पश्चात होंगे, एक (शिक्षाप्रद) निशानी[1] बन जाये और वास्तव में, बहुत-से लोग, हमारी निशानियों से अचेत रहते हैं।
1. बताया जाता है कि 1898 ई◦ में इस फ़िरऔन का मम्मी किया हुआ शव मिल गया है जो क़ाहिरा के विचित्रालय में रखा हुआ है।

﴾ 93 ﴿ और हमने बनी इस्राईल को अच्छा निवास स्थान[1] दिया और स्वच्छ जीविका प्रदान की। फिर उन्होंने परस्पर विभेद उस समय किया, जब उनके पास ज्ञान आ गया। निश्चय अल्लाह उनके बीच प्रलय के दिन उसका निर्णय कर देगा, जिसमें वे विभेद कर रहे थे।
1. इस से अभिप्राय मिस्र और शाम के नगर हें।

﴾ 94 ﴿ फिर यदि आपको उसमें कुछ संदेह[1] हो, जो हमने आपकी ओर उतारा है, तो उनसे पूछ लें, जो आपसे पहले से पुस्तक (तौरात) पढ़ते हैं। आपके पास, आपके पालनहार की ओर से सत्य आ गया है। अतः आप, कदापि संदेह करने वालों में न हों।
1. आयत में संबोधित नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को किया गया है। परन्तु वास्तव में उन को संबोधित किया गया है जिन को कुछ संदेह था। यह अर्बी की एक भाषा शैली है।

﴾ 95 ﴿ और आप कदापि उनमें से न हों, जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठला दिया, अन्यथा क्षतिग्रस्तों में हो जायेंगे।

﴾ 96 ﴿ (हे नबी!) जिनपर आपके पालनहार का आदेश सिध्द हो गया है, वह ईमान नहीं लाएँगे।

﴾ 97 ﴿ यद्यपि उनके पास, सभी निशानियाँ आ जायें, जब तक दुःखदायी यातना नहीं देख लेंगे।

﴾ 98 ﴿ फिर, ऐसा क्यों नहीं हुआ कि कोई बस्ती ईमान[1] लाये, फिर उसका ईमान उसे लाभ पहुँचाये, यूनुस की जाति के सिवा, जब वे ईमान लाये, तो हमने उनके सांसारिक जीवन में अपमानकारी यातना दूर कर[2] दी और उन्हें, एक निश्चित अवधि तक लाभान्वित होने का अवसर दे दिया।
1. अर्थात यातना का लक्षण देखने के पश्चात्। 2. यूनुस अलैहिस्सलाम का युग ईसा मसीह़ से आठ सौ वर्ष पहले बताया जाता है। भाष्यकारों ने लिखा है कि वह यातना की सूचना दे कर अल्लाह की अनुमति के बिना अपने नगर नीनवा से निकल गये। इस लिये जब यातना के लक्षण नागरिकों ने देखे और अल्लाह से क्षमा याचना करने लगे तो उन से यातना दूर कर दी गयी। (इब्ने कसीर)

﴾ 99 ﴿ और यदि आपका पालनहार चाहता, तो जोभी धरती में हैं, सब ईमान ले आते, तो क्या आप, लोगों को बाध्य करेंगे, यहाँ तक कि ईमान ले आयें[1]?
1. इस आयत में यह बताया गया है कि सत्धर्म और ईमान ऐसा विषय है जिस में बल का प्रयोग नहीं किया जा सकता। यह अनहोनी बात है कि किसी को बलपूर्वक मुसलमान बना लिया जाये। (देखियेःसूरह बक़रह, आयतः 256)

﴾ 100 ﴿ किसी प्राणी के लिए ये संभव नहीं है कि अल्लाह की अनुमति[1] के बिना ईमान लाये और वह (अल्लाह) मलीनता उनपर डाल देता है, जो बुध्दि का प्रयोग नहीं करते।
1. अर्थात उस के स्वभाविक नियम के अनुसार जो सोच-विचार से काम लेता है वही ईमान लाता है।

﴾ 101 ﴿ (हे नबी!) उनसे कहो कि उसे देखो, जो आकाशो तथा धरती में है और निशानियाँ तथा चेतावनियाँ उन्हें क्या लाभ दे सकती हैं, जो ईमान (विश्वास) न रखते हों?

﴾ 102 ﴿ तो क्या, वे इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि उनपर वैसे ही (बुरे) दिन आयें, जैसे उनसे पहले लोगों पर आ चुके हैं? आप कहिएः फिर तो तुम प्रतीक्षा करो। मैं (भी) तुम्हारे साथ प्रतीक्षा करने वालों में हूँ।

﴾ 103 ﴿ फिर हम अपने रसूलों को और जो ईमान लाये बचा लेते हैं। इसी प्रकार, हमने अपने ऊपर अनिवार्य कर लिया है कि ईमान वालों को बचा लेते हैं।

﴾ 104 ﴿ आप कह दें: हे लोगो! यदि तुम, मेरे धर्म के बारे में किसी संदेह में हो, तो (सुन लो) मैं उसकी इबादत (वंदना) कभी नहीं करूँगा, जिसकी इबादत (वंदना) अल्लाह के सिवा तुम करते हो। परन्तु, मैं उस अल्लाह की इबादत (वंदना) करता हूँ, जो तुम्हें मौत देता है और मुझे आदेश दिया गया है कि ईमान वालों में रहूँ।

﴾ 105 ﴿ और ये कि अपने मुख को धर्म के लिए सीधा रखो, एकेश्वरवादी होकर और कदापि मिश्रणवादियों में न रहो।

﴾ 106 ﴿ और अल्लाह के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है। फिर यदि, आप ऐसा करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जायेंगे।

﴾ 107 ﴿ और यदि अल्लाह आपको कोई दुःख पहुँचाना चाहे, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं और यदि आपको कोई भलाई पहुँचाना चाहे, तो कोई उसकी भलाई को रोकने वाला नहीं। वह अपनी दया अपने भक्तों में से जिसपर चाहे, करता है तथा वह क्षमाशील दयावान् है।

﴾ 108 ﴿ (हे नबी!) कह दो कि हे लोगो! तुम्हारे पालनहार की ओर से तुम्हारे पास सत्य आ गया[1] है। अब जो सीधी डगर अपनाता हो, तो उसी के लिए लाभदायक है और जो कुपथ हो जाये, तो उसका कुपथ उसी के लिए नाशकारी है और मैं तुमपर अधिकारी नहीं हूँ[2]।
1. अर्थात मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम क़ुर्आन ले कर आ गये हैं। 2. अर्थात मेरा कर्तव्य यह नहीं है कि तुम्हें बलपूर्वक सीधी डगर पर कर दूँ।

﴾ 109 ﴿ आप उसी का अनुसरण करें, जो आपकी ओर प्रकाशना की जा रही है और धैर्य से काम लें, यहाँ तक कि अल्लाह निर्णय कर दे और वह सर्वोत्तम निर्णेता है।

कुरान - कुरान की मान्यताएँ (Quran in Hindi)

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